Untitled

By Nickie Zimov

उपन्यास के एक अध्याय में,
जिसमें लिखी जाती है एक अरसे बाद मिले दो लोगों की निकटता
जितनी जगह दो शब्दों के बीच में छूटी रह जाती है
दो लोग आपस में उतने ही पास रह सकते हैं और उतने ही दूर भी ।

ऐसे ही किसी उपन्यास में रहती हुई एक कविता …


सालों बाद,
एक दिन अचानक,
तेज़ बारिश के बाद
किताबों की एक दुकान के बाहर वो, यूँ ही आसमान को एकटक ताकते खड़ी हुई, मिल गयी ।
उसकी कलाईयों पर वही पुरानी, काले बेल्ट वाली गोल्डन डायल की घड़ी झूल रही थी,
मेरी आँखो पर भी वही पुराना कत्थई फ्रेम का मोटा चश्मा टंगा था।


बहुत देर तक, हम एक बेंच पर साथ में अलग अलग बैठे रहे
एक दूसरे के एकांत में कहीं दूर बिछे गरम कम्बल ढूंढते हुए

दोनों के बीच, उसका गीला छाता लेटा रहा।

“तुम्हारे चश्मे का नंबर और बढ़ गया है ?”
“नहीं,उतना ही है।”
“1.5 ” दोनों ने साथ कहा ।
उसकी घड़ी को लेकर मैं कोई सवाल नहीं पूछ पाया ।
आखिर पूछता भी क्या ! कि तुम्हारी घड़ी में समय अब भी वैसे ही बीतता है जैसे पहले बीता करता था ?”

उसकी घड़ी और मेरे चश्मे के बीच एक महीन धागे से आकर बंध गयी अनगिनत स्मृतियाँ ।

मुझे,ऐनक की गीली कांच से उस पार सब धुंधला दिखा,
पिघल कर बहता हुआ,रंगों में।
बेस्ट बस का लाल, ब्रितानी इमारतों का पीला, और उसकी साड़ी का हल्का गुलाबी ।
सब धुंधला, पिघल कर, बहता हुआ ।


उसके बालों में अटकी और गर्दन से लुढ़कती बूंदें साफ दिखी।

सौंधी हवा के बीच भीतर फूटा गुन-गुनी धूधिया रोशनी लिए शहद का एक सोता।

“अब चलता हूँ” सोचकर मैं उठा और चलने लगा।
“शायद थोड़ी देर और बैठे रहेंगे” सोचकर वो बैठे रही।

“वापस जाकर क्या करोगे ?” उसने पूछा।

मैं …
वापस लौटकर …
एक ऐसी पंक्ति लिखूंगा
जिसके शब्दों के बीच उतनी ही जगह छूटे
जितनी समीपता हम दोनों के बीच थी।

लिखना चाहा समय का अस्तित्वहीन हो जाना.
लिखा “बचपन”
लिखना चाहा दो लोगो के बीच लेटा हुआ मौन ।
लिखा “पहाड़”,
फिर काट कर “पेड़ “लिख दिया ।
लिखना चाहा “उसकी कलाई और मेरी हथेली के बीच की दूरी
लिखा “स्पर्श”

फिर सभी शब्दों को एक सिरे से काट दिया।

” और तुम क्या करोगी,लौटकर !” मैंने पूछा

मैं ,
एक चित्र बनाउंगी ।

चित्र में उसने ,
एक चुप से पहाड़ की ढलान पे एक अकेला बूढ़ा पेड़ उगाया, जिसकी शाखाओं पे दो नंगे बच्चे, एक दूसरे का हाथ पकड़ के
आजीवन बैठे रहें।

the language of images

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When images come together

to take a whole new shape.

A hand and a toe,

Three concentric circles and Seven distorted cubes,

The dwarf hills of cotton and a pair of yellow shoes,

Memories of hollow ice and warm visceral dreams.

Dreams of a never-ending blue desert which merges with the sky somewhere.

With dunes, as tall as my father.
Where A red frozen lake sleeps underneath.

A vague act of repetition in chaos turns into a feeble hope.
Because we seek stories everywhere with purpose and meanings …
But here,

Meanings fade away slowly,
I look for words,
to understand, to explain.
But there aren’t any.

I keep looking at those images till everything becomes mundane

The extraordinary becomes ordinary.

A dimensionless solitude where time and space merge together.

Like a thousand-year-old clock hanging on a white wall.
Nobody recognizes it’s presence anymore
For them, it has always been there.
Always …
Just like that…

No one
Not even this thousand-year-old man.

when his mother fixed it there …
His little curious eyes were glued to it.

Chirp chirp tweet tweet…
The bluebird came out of the clock
And told him that it’s 5 o clock.
He stood there with eyes wide open…
Then,
He ran, ran and ran through the never-ending hibiscus fields,
The clouds looked like floating submarines…

He paused for a moment and in a glimpse, caught the blue desert passing by.

He ran, ran and ran in circles and cubes and rectangles
He ran,
Because he did not have any words to give a name to this newly found emotion …
He grew up a little…
and soon understood that the bird is not real,
it works because of the clinking clanking gears.
Centuries later,
He discovered the word.
“Magic: A fleeting feeling of pure bliss that exists only without meanings.”

 

आवाज़ और मौन के बीच कहीं…

 

माँ सबसे बात करते रहती है ,

बल्लहर ,भिंडी ,भाजी तोड़ते समय मिट्ठु से ,

खाना बनाते बनाते बर्तन माँजने वाली बाई से ,

और शाम में दरवाज़े पे खड़े खड़े ख़ुद से ,

और वो कभी कभी अपने भय और अपनी  इच्छाएँ तुलसी और बरगद को भी बताती है।

सबसे आख़िर में ,पिता को ।

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माँ अपने हाथ पैर भी कभी कभार ही दबवाती है ।

दिन भर खड़े-खड़े ,कभी-कभी उसकी एढ़ियाँ दुखती है ,

दो हाथ लगाओ ,वो सो जाती है ।

नहीं बस वो सो जाती है ,फिर नींद में नहीं बोलती ।

 

पर पिता ,

पिता कुछ नहीं बोलते ,

लगभग नहीं जैसा ।

जैसे एक तराज़ू में एक ओर शब्द हैं और दूसरी ओर बाँट

मतलब बोलते हैं ,नपा तुला सा ।

जैसे अख़बार पढ़ते पढ़ते कभी कोई ख़बर बोलकर पढ़ लेते हैं ।

या घर के बाहर , दूध डेयरी पे बैठ कर दोस्तों से कुछ बोल लेते हैं ।

 

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पर घर पर बोलना अलग होता है ,बाहर बोलना अलग ।

 

पिता क्या कमरे में रात में बैठ कर बड़बड़ाते हैं ?

माँ कहती है की पिता कैल्क्युलेटर से बात करते हैं ।

मैंने एक दिन झाँक कर देखा ,

पिता सच में डिम बल्ब की रोशनी में कैल्क्युलेटर की बटन दबाते जाते ,संख्या बोलते जाते ।

और रजिस्टर में लिखते जाते ,

कभी ऑफ़िस का अकाउंट ,तो कभी एक पीली कापी में घर का ख़र्चा ।

जोड़ घटाना ,गुना भाग ।

 

पिता रोज़ हाथ पैर दबवाते हैं ,उनके कंधे बहुत दुखते हैं !

 

माँ के बग़ल में जाकर लेट जाते हैं ।

फिर आँख बंद करे पड़े रहते हैं ,करवट बदलते ।

 


अंधेरे में चुप खड़ा होकर ,

मैं हल्की रोशनी में उन्हें देखता हूँ ,

पिता आँख बंद बंद किए किए बोलते हैं

“सोजा ! बेटा ! ”

 

क्या कुछ शब्द जो नहीं कहे जाते

वो माँसपेशियों में उतर कर ऐंठन बन जाते हैं ?

 

कमरा

image by Akshat 

खिड़की से कुछ दूर एक कुर्सी बैठी हुयी थी ,

और पास ही एक आदमी खड़ा था ।

सामने, टेबल पर एक कलम लेटी थी उसके बाजु diary  का एक पन्ना ऊँघते हुए करवट बदल रहा था या शायद हवा से फड़फड़ा रहा था ।

वो आदमी हमेशा  से ऐसे खूँटे से बँधा था जो दिखता नहीं था ।

सन्न सन्नाटा । चुप सी चीख़ें ।कमरे में पसरा पड़ा कत्थई  भारी शून्य …

अचानक तेज़ रोशनी का एक झरना खिड़की से बहता हुआ अंदर आया,उसमें सब कुछ भीग गया ।

भीगा ऐसे की किसी सामान को निचोड़ो तो उसे टपके प्रकाश की कुछ बूँदें ।

कमरे में सबकुछ वैसा हो था ,सिवाए उस आदमी के  जो अब वहाँ नहीं था ।

कलम जस की तस रखी थी , फिर धीरे से  पन्ने पे कुछ लिखावट दिखी ।

सन्न सन्नाटा। फड़ फड़फ़ाहट। दीवार पे लटकती उजली चादर।कमरे में पसरे कत्थई शून्य के बाजु लेटने की जगह बनाती साएँ साएँ,हवा की आवाज़… 

क्या वो आदमी शब्द होकर एक लम्बी कविता बन गया था ,

या एक विचार बन कर खिड़की से उड़ गया था ।


image by Akshat Pathak

प्रार्थना

image by Akshat
अगली बार,
मैं एक छोटे बीज से उग कर बड़ा पेड़ बनना चाहता हूँ।
बहुत बड़ा।
बेहद विशाल 
इतना कि मैं किसी गाँव का, या छोटी सी बस्ती का पता बन जाऊं।

जैसे ही कोई पूछे "क्यों भाई! ये फ़लाँ गाँव कहाँ है?
"अरे बस! सीधा चले जाओ,
सड़क घेरे बरगद का पेड़ खड़ा होगा बस वहीं से दाएँ मुड़ कर कच्ची सड़क पकड़ लेना "

वैसा पेड़ जिसकी शाखाओं पे गर्मी की लंबी दोपहरों में बच्चे अलसाये से लदे रहते हैं ।
बस इतना ही।